जब हम जन्म लेते है तभी हर एक चीज अजनबी लगती है. पूरी दुनिया और उसमें बस लोग. फिर धीरे धीरे हम जानने लगते है अपने परिवार के लोगों को, कुछ वस्तुओं को, कई संवेदनाओं को. ये बहुत तीव्र होता है. क्योंकि बच्चे के मस्तिष्क कुछ भी समझने के लिए स्वतंत्र होता है.
फिर जब हम स्कूल जाने लगते है तो कुछ और लोगों को जानते है. कुछ लोग हमारे प्रिय हो जाते है और कुछ लोगों के पास हम जाना नहीं चाहते. कुछ मित्र बनते है तो कुछ शत्रु. मित्रता में जितनी मिठास होती है उतनी कड़वाहट शत्रुता में नहीं. बचपन में किसी को न पसंद करना इतना व्यापक नहीं होता. बस असहज हो जाता है उनके साथ रहना जिन्हें हम पसंद नहीं करते हो.जब हम पाँचवी कक्षा के करीब रहते है तब तक हमारा एक समूह बन जाता है जहाँ तीन चार से लेकर दस लोग तक रहते है जिनके बीच हम बातें शेयर करते है. जिनके साथ हम खेलते है. स्कूल में खेलने का भी अलग मज़ा है. लंच टाइम खत्म होने के बाद भी हमारा मन नहीं मानता वर्ग की ओर जाने का.
जब हम थोड़े और बड़े हो जाते है तो हमारी दोस्ती सबसे होने लग जाती है. हमें सब अच्छे लगते है. सबकी बातें मीठी लगती है. लोगों को जानना किताबों को जानने से अधिक प्रिय हो जाता है. तभी दस्तक देती है प्यार की पहली किरण. जहाँ जिंदगी के मायने बदलने लगते है. प्यार होता है. साथ रहते है खुश रहते है मगर फिर दिल टूटना. दोस्ती टूटनी. भरोसा टूटना. सब एक साथ होता है. अगर हम किसी एक को भी बचाने में सक्षम है तो ये बहुत बड़ी बात है.
लोग अक्सर कहते हैं कि इन बातों से कुछ नहीं होता. Teenage love isn't love but affection. शायद वो सही भी हो. लेकिन इन बातों का असर पूरे जीवन रहता है.
हर बीतते दिन के साथ लोगों पर भरोसा करना और कठिन होता जाता है. और अंत में हम बचते है अकेले एक कमरे में जहाँ रोशनी तो है मगर मन के अंधेरे तक पहुंच सके, इतनी नहीं.
ये संसार इतनी जल्दी बदल रहा है कि हमें इन बातों पर सोचने का समय तक नहीं. माना लोगों ने आपके भरोसे के साथ खिलवाड़ किया है आपके प्रेम का कोई इज्ज़त नहीं रखा लेकिन जब वक्त मिले सोचिएगा कहीं आपने तो किसी का भरोसा नहीं तोड़ा?
–Praphull
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